ग़ज़ल
दे रहा आवाज़ कोई खिड़कियाँ तो खोलिए
रंज है नाराज़गी है बात क्या है बोलिए
दुश्मनी का क्या किसी से भी कहीं भी कीजिये
दोस्ती करने से पहले आदमी को तोलिए
रोज़ उनको देखते हैं और कहते हैं ग़ज़ल
वो हमारे हों न होँ हम तो उन्ही के हो लिए
रात देखा मुस्कुराते ख़्वाब में माँ - बाप को
ज़िन्दगी के पाप सारे एक पल में धो लिए
था यही डर शाईरों की ज़ात ना बदनाम हो
महफिलों में मुस्कुराए कागज़ों पे रो लिए
सिर्फ 'तनहा' चाशनी से ज़ाइक़ा आता नहीं
ज़िन्दगी में आंसुओं का भी नमक तो घोलिये
- प्रमोद
कुमार कुश