रविवार, 23 अगस्त 2009

चल पड़े ये सोच कर हम ...

चल पड़े ये सोचकर हम वो कहीं टकराएँ तो
हम बहुत आराम से हैं फिर हमें तड़पाएँ तो

वो हमारी आशिकी को खेल ही समझा किए
सीख लें हम भी मुहब्बत वो हमें सिखलाएँ तो

हम न देखेंगे पलट के जानिबे जानाँ कभी
वो हमारे ख्व़ाब का घर छोड़कर के जाएँ तो

फिर खनकता शेर कोई मैं लिखूँ इस रात पे
वो मेरी पलकों पे अपनी जुल्फ़ को बिख़राएँ तो

भूल जाएँगे पुराने ज़ख्म़ की हर टीस हम
वो हमें ताज़ा-सा कोई ज़ख्म़ देकर जाएँ तो

एक 'तनहा' की तड़प का आपको अहसास हो
इश्क में दो चार आँसू आपको मिल जाएँ तो

- प्रमोद कुमार कुश ' तनहा '

9 टिप्‍पणियां:

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

एक तनहा की तड़प का एहसास हमें हो गया
हर इक शे'र लाजवाब दिल बाग-बाग हो गया

shama ने कहा…

बड़े दिनों बाद आपका link मिल गया ..रचनाएँ हमेशाकी तरह लाजवाब हैं ..! इससे आगे कुछ कहना लाज़िम नही ...क्योंकि अल्फाज़ नही...!

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वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हम न देखेंगे पलट के जानिबे जानाँ कभी
वो हमारे ख्व़ाब का घर छोड़कर के जाएँ तो
क्या खूब लिखा है. बधाई.

* મારી રચના * ने कहा…

भूल जाएँगे पुराने ज़ख्म़ की हर टीस हम
वो हमें ताज़ा-सा कोई ज़ख्म़ देकर जाएँ तो

Awesome lines.....

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

bahut khoobsurat likhte ho aap...

Sushma Sharma ने कहा…

वाह क्या बात है, निराले अंदाज़ में भीगीं सी बातें.

Randhir Singh Suman ने कहा…

एक तनहा की तड़प का एहसास हमें हो गया
हर इक शे'र लाजवाब दिल बाग-बाग हो गया.nice

kshama ने कहा…

क्या लिखते हैं आप ...! एकेक पंक्ती दोहरानी पड़ेगी......!! कई रचनाएँ एक साँस में पढ़ गयी...!
Ham to follower hain..baar baar palat ke dekhenge!

ज्योति सिंह ने कहा…

हम न देखेंगे पलट के जानिबे जानाँ कभी
वो हमारे ख्व़ाब का घर छोड़कर के जाएँ तो
भूल जाएँगे पुराने ज़ख्म़ की हर टीस हम
वो हमें ताज़ा-सा कोई ज़ख्म़ देकर जाएँ
bahut khoob aap aaye to hum ise padhkar aanand le paaye