मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008

पलट कर देखना ...

चलो माना कि वो हमदम नहीं है
पलट कर देखना कुछ कम नहीं है

मुहब्बत एक दिन दम तोड़ती है
वफ़ाओं पे अगर क़ायम नहीं है

सफ़र में हादिसे पीछा करेंगे
क़सम से ज़िन्दगी सरगम नहीं है

कईं मौसम मेरी आंखों से गुज़रे
किसी पल चैन का मौसम नहीं है

नहीं मिलता कभी मसरूफ़ होगा
वगरना हमसे वो बरहम नहीं है

हमारा हौसला तुम तोड़ दोगे
तुम्हारे पास वो दमख़म नहीं है

चरागों की जगह अरमाँ जलेंगे
अंधेरों का हमें कुछ ग़म नहीं है

खुले छोड़े हुए हैं ज़ख्म 'तनहा'
हमारे ज़ख्म का मरहम नहीं है

- प्रमोद कुमार कुश 'तनहा'

3 टिप्‍पणियां:

anwinj ने कहा…

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seema gupta ने कहा…

मुहब्बत एक दिन दम तोड़ती है
वफ़ाओं पे अगर क़ायम नहीं है
"jvab nahee aapke laikhne ka,ek ek sabd jaise motee mey peeroya hua hai"
Regards

पारुल "पुखराज" ने कहा…

खुले छोड़े हुए हैं ज़ख्म 'तनहा'
हमारे ज़ख्म का मरहम नहीं है
waah